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रविवार, अगस्त 19, 2012

क्षमावाणी पर्व(दिगंबर जैन समाज का दस लक्षण पर्व ) अथवा पर्युषण पर्व( श्वेताम्बर जेन समाज का पर्व)--- जहां स्नेह, वहीं क्षमा---


क्षमावाणी पर्व(दिगंबर जैन समाज का  दस लक्षण पर्व ) अथवा पर्युषण पर्व( श्वेताम्बर जेन समाज का पर्व)--- जहां स्नेह, वहीं क्षमा---

------पर्युषण पर्व साल में तीन बार आते है जो माघ , चैत्र , भाद्प्रद तीनो माह के शुक्ल पक्ष की पंचमी से प्रारम्भ होकर चौदश तक चलते है| पर्युषण पर्व (दश लक्षण पर्व) भी एक ऐसा ही पर्व है, जो आदमी के जीवन की सारी गंदगी को अपनी क्षमा आदि दश धर्मरूपी तरंगों के द्वारा बाहर करता है और जीवन को शीतल एवं साफ-सुथरा बनाता है।
जैन धर्मावलंबी भाद्रपद मास में पर्युषण पर्व मनाते हैं। श्वेताम्बर जेन संप्रदाय के पर्युषण 8 दिन चलते हैं। उसके बाद दिगंबर संप्रदाय वाले 10 दिन तक पर्युषण मनाते हैं। उन्हें वे 'दसलक्षण' के नाम से भी संबोधित करते हैं।
पर्युषण पर्व मनाने का मूल उद्देश्य आत्मा को शुद्ध बनाने के लिए आवश्यक उपक्रमों पर ध्यान केंद्रित करना होता है। पर्यावरण का शोधन इसके लिए वांछनीय माना जाता है। 
आत्मा को पर्यावरण के प्रति तटस्थ या वीतराग बनाए बिना शुद्ध स्वरूप प्रदान करना संभव नहीं है। इस दृष्टि से 'कल्पसूत्र' या तत्वार्थ सूत्र का वाचन और विवेचन किया जाता है और संत-मुनियों और विद्वानों के सान्निध्य में स्वाध्याय किया जाता है। 
-----जैन धर्म में सबसे उत्तम पर्व है पर्युषण। यह सभी पर्वों का राजा है। इसे आत्मशोधन का पर्व भी कहा गया है, जिसमें तप कर कर्मों की निर्जरा कर अपनी काया को निर्मल बनाया जा सकता है। 
पर्युषण पर्व को आध्यात्मिक दीवाली की भी संज्ञा दी गई है। जिस तरह दीवाली पर व्यापारी अपने संपूर्ण वर्ष का आय-व्यय का पूरा हिसाब करते हैं, गृहस्थ अपने घरों की साफ- सफाई करते हैं, ठीक उसी तरह पर्युषण पर्व के आने पर जैन धर्म को मानने वाले लोग अपने वर्ष भर के पुण्य पाप का पूरा हिसाब करते हैं। वे अपनी आत्मा पर लगे कर्म रूपी मैल की साफ-सफाई करते हैं।  
------मगर पर्युषण पर्व पर क्षमत्क्षमापना या क्षमावाणी का कार्यक्रम ऐसा है जिससे जैनेतर जनता को काफी प्रेरणा मिलती है। इसे सामूहिक रूप से विश्व-मैत्री दिवस के रूप में मनाया जा सकता है। पर्युषण पर्व के समापन पर इसे मनाया जाता है। गणेश चतुर्थी या ऋषि पंचमी को संवत्सरी पर्व मनाया जाता है। 
उस दिन लोग उपवास रखते हैं और स्वयं के पापों की आलोचना करते हुए भविष्य में उनसे बचने की प्रतिज्ञा करते हैं। इसके साथ ही वे चौरासी लाख योनियों में विचरण कर रहे, समस्त जीवों से क्षमा माँगते हुए यह सूचित करते हैं कि उनका किसी से कोई बैर नहीं है। परोक्ष रूप से वे यह संकल्प करते हैं कि वे पर्यावरण में कोई हस्तक्षेप नहीं करेंगे। 
-----मन, वचन और काया से जानते या अजानते वे किसी भी हिंसा की गतिविधि में भाग न तो स्वयं लेंगे, न दूसरों को लेने को कहेंगे और न लेने वालों का अनुमोदन करेंगे। यह आश्वासन देने के लिए कि उनका किसी से कोई बैर नहीं है, वे यह भी घोषित करते हैं कि उन्होंने विश्व के समस्त जीवों को क्षमा कर दिया है और उन जीवों को क्षमा माँगने वाले से डरने की जरूरत नहीं है। 
खामेमि सव्वे जीवा, सव्वे जीवा खमंतु मे। मित्तिमे सव्व भुएस्‌ वैरं ममझं न केणई। यह वाक्य परंपरागत जरूर है, मगर विशेष आशय रखता है। इसके अनुसार क्षमा माँगने से ज्यादा जरूरी क्षमा करना है। 
क्षमा देने से आप अन्य समस्त जीवों को अभयदान देते हैं और उनकी रक्षा करने का संकल्प लेते हैं। तब आप संयम और विवेक का अनुसरण करेंगे, आत्मिक शांति अनुभव करेंगे और सभी जीवों और पदार्थों के प्रति मैत्री भाव रखेंगे। आत्मा तभी शुद्ध रह सकती है जब वह अपने सेबाहर हस्तक्षेप न करे और बाहरी तत्व से विचलित न हो। क्षमा-भाव इसका मूलमंत्र है। 
-----व्यक्ति सुखेच्छु होता है। सुख प्राप्ति के लिए वह कृतसमर्पण बना रहता है। वह सुख प्राप्ति के लिए संकल्प और प्रयास करता है, पर कई बार दुख के आवर्त में भी फंस जाता है। स्थाई और निरपेक्ष सुख की प्राप्ति का एकमात्र मार्ग अध्यात्म है। उसकी आराधना सदैव की जानी चाहिए, परन्तु उसकी सघन साधना सबके लिए सदा संभव नहीं। इसलिए धर्माराधना के लिए कुछ दिनों के विशेष रूप से निर्धारित किया गया है। जैन श्वेताम्बर परम्परा में ’पर्युषण पर्व‘ और दिगम्बर परम्परा में ’दशलक्षण-पर्व‘ विशेष धर्माराधना का समय है। 
इसमें भी सर्वाधिक महत्व और मूर्धन्य स्थान ’संवत्सरी महापर्व‘ को प्राप्त है। 
’संवत्सरी की तैयारी स्वरूप पूर्ववर्ती सात दिनों में भी विशेष रूप से प्रवचन व धर्माराधना का कार्यक्रम चलता है।  
-----पूजा, अर्चना, आरती, समागम, त्याग, तपस्या, उपवास में अधिक से अधिक समय व्यतीत किया जाता है और दैनिक व्यावसायिक तथा सावद्य क्रियाओं से दूर रहने का प्रयास किया जाता है। संयम और विवेक का प्रयोग करने का अभ्यास चलता रहता है। 
-----मंदिर, उपाश्रय, स्थानक तथा समवशरण परिसर में अधिकतम समय तक रहना जरूरी माना जाता है। वैसे तो पर्युषण पर्व दीपावली व क्रिसमस की तरह उल्लास-आनंद के त्योहार नहीं हैं। फिर भी उनका प्रभाव पूरे समाज में दिखाई देता है। 
----उपवास, बेला, तेला, अठ्ठाई, मासखमण जैसी लंबी बिनाकुछ खाए, बिना कुछ पिए, निर्जला तपस्या करने वाले हजारों लोग सराहना प्राप्त करते हैं। भारत के अलावा ब्रिटेन, अमेरिका, कनाडा, ऑस्ट्रेलिया, जापान, जर्मनी व अन्य अनेक देशों में भी पर्युषण पर्व धूमधाम से मनाए जाते हैं। 
-----दसलक्षण पर्व के इन दन दिनों में कोई एकासन कर रहा है, तो किसी ने उपवास का संकल्प लिया है। सुबह जल्दी उठकर घर के सारे कामों को पूरा करके मंदिर जाना और फिर दिन भर विभिन्न आयोजनों में व्यस्त रहना। कुछ इसी तरह की दिनचर्या शुरू हो चुकी है। दस दिनों तक यही नियमित दिनचर्या रहेगी जिसका महिलाओं के साथ घर के अन्य सदस्य भी पालन करेंगे।
दसलक्षण पर्व के इन दन दिनों में कोई एकासन कर रहा है, तो किसी ने उपवास का संकल्प लिया है। सुबह जल्दी उठकर घर के सारे कामों को पूरा करके मंदिर जाना और फिर दिन भर विभिन्न आयोजनों में व्यस्त रहना। कुछ इसी तरह की दिनचर्या शुरू हो चुकी है। दस दिनों तक यही नियमित दिनचर्या रहेगी जिसका महिलाओं के साथ घर के अन्य सदस्य भी पालन करेंगे।
-----कई परिवारों में पर्यूषण में दिन में बस एक ही बार खाना बनता है। जो एकासन व्रत रखता है वह सिर्फ एक ही बार बैठकर खाना खाता है और पानी भी एक ही बार लेता है। फिर दोबारा कुछ नहीं खाया जाता। इसके साथ ही जो उपवास रखते हैं वो फलाहार लेते हैं। इन दस दिनों तक लोग बाहर का कुछ नहीं खाते। विशेष तौर पर हरी पत्तेदार सब्जियां और कंदमूल खाना वर्जित माना गया है।
----व्रत के कारण ध्यान न भटके और सबसे बड़ी बात की जब धर्म के लिए दस दिनों का समय मिला है, तो क्यों न उसका सदुपयोग किया जाए। इसीलिए हमारे यहां महिलाओं और बच्चों का अधिकतर समय मंदिर में ही बीतता है। इन दस दिनों तक मंदिरों में विशेष आयोजन और प्रतियोगिताएं होती हैं जिनमें सभी भाग लेते हैं। इस बहाने लोगों को अपनी प्रतिभाओं को निखारने का समय भी मिलता है। 
कई परिवारों में पर्यूषण में दिन में बस एक ही बार खाना बनता है। जो एकासन व्रत रखता है वह सिर्फ एक ही बार बैठकर खाना खाता है और पानी भी एक ही बार लेता है। फिर दोबारा कुछ नहीं खाया जाता। इसके साथ ही जो उपवास रखते हैं वो फलाहार लेते हैं। इन दस दिनों तक लोग बाहर का कुछ नहीं खाते। विशेष तौर पर हरी पत्तेदार सब्जियां और कंदमूल खाना वर्जित माना गया है।
----व्रत के कारण ध्यान न भटके और सबसे बड़ी बात की जब धर्म के लिए दस दिनों का समय मिला है, तो क्यों न उसका सदुपयोग किया जाए। इसीलिए हमारे यहां महिलाओं और बच्चों का अधिकतर समय मंदिर में ही बीतता है। इन दस दिनों तक मंदिरों में विशेष आयोजन और प्रतियोगिताएं होती हैं जिनमें सभी भाग लेते हैं। इस बहाने लोगों को अपनी प्रतिभाओं को निखारने का समय भी मिलता है। 

आइये जाने की क्षमा क्या हें..???
------जब दो वस्तुएँ आपस में टकराती हैं, तब प्रायः आग पैदा होती है। ऐसा ही आदमी के जीवन में भी घटित होता है। जब व्यक्तियों में आपस में किन्हीं कारणों से टकराहट पैदा होती है, तो प्रायः क्रोधरूपी अग्नि भभक उठती है और यह अग्नि न जाने कितने व्यक्तियों एवं वस्तुओं को अपनी चपेट में लेकर जला, झुलसा देती है। इस क्रोध पर विजय प्राप्त करने का श्रेष्ठतम उपाय क्षमा-धारण करना ही है और क्षमा-धर्म को प्राप्त करने का अच्छा उपाय है कि आदमी हर परिस्थिति को हँसते-हँसते, यह विचार कर स्वीकार कर ले कि यही मेरे भाग्य में था। पर्युषण पर्व का प्रथम ‘उत्तम क्षमा’ नामक दिन, इसी कला को समझने, सीखने एवं जीवन में उतारने का दिन होता है।
-----क्षमा अंत:करण की उदारता है । एक दूसरे से गले मिले और मिट गयी दूरियां। दिल की गहराइयों से मांगी गयी क्षमा से एक दूसरे के दिल भी हल्के हुए।
------क्षमा सामाजिक और पारिवारिक तौर पर तो बहुत मांगी जाती है, पर असली तो आत्मिक और आंतरिक है ।  जिसके प्रति हमारे मन में विद्वेष की भावना पनप रह रही होती है, उससे यदि क्षमा मांग ली जाये तो हृदय में पवित्रता आ जाती है।  दिल की गहराइयों से क्षमा मांग कर हृदय को पवित्र किया जाना चैये न की किसी और को दिखने के लिए ।  जहां स्नेह होगा, वहीं क्षमा होगी। क्षमा मांगना सच्ची वीरता है। इसमें अभिनय नहीं होना चाहिए, बल्कि अंतरंग से प्रगट होनी चाहिए। 
-------नींव की मजबूती कलश की शोभा को बढ़ाती है ।
-----पर्युषण के 10 धर्म नींव हैं और क्षमा कलश ।
-----क्षमा के ‘क्ष’ शब्द में दो गाँठें होती हैं,पहली गाँठ दूसरों से तथा दूसरी स्वंय से ।ज्यादा गाँठें, पहचान वालों से ही पड़ती हैं,इन गाँठों को खोलना ही क्षमा है ।
-----संस्कृत में ‘क्ष’, ‘क’ और ‘श’ से मिलकर बनता है,‘क’ से कषाय और ‘श’ से शमन,तथा ‘मा’ से मान का क्षय ।क्रोध तो फिर भी छोटी बुराई है पर ध्यान रहे – यह बैर की गाँठ में ना परिवर्तित हो जाये ।
-----मच्छर भी खून चूसता है पर उसके मन में कषाय नहीं होती,पर जब हम उसे मारते हैं, तो कषाय से ही मारते हैं ।गलती जानबूझ कर भी अपराध है और अनजाने में भी,जैसे जानबूझ कर ज़हर खाने में भी मरण तथा अनजाने में भी ।

-----अपने आंगन में, फूल ऐसे खिलायें, जिनसे पड़ौसी को सुगंध आए ।
-----पर्युषण पर्व मैत्री का संदेश लेकर भी आता है। वर्ष भर न खुलने वाली गांठें भी इस पवित्र अवसर पर खुल जानी चाहिए। संवत्सरी के रोज होने वाले उपवास की ऊर्जा में वर्ष भर की वैमनस्य भस्म कर डालना चाहिए। कितना अच्छा हो कि पर्युषण पर्व से आध्यात्मिक संबल पाकर व्यक्ति पूरे वर्ष भर ऊर्जा प्राप्त करता रहे और अध्यात्म-प्रभावित आचरण उसके जीवन में दिखते रहें। 
इसके लिए चार भावनाओं से चित्त को भावित करना अपेक्षित है। वे चार भावनाएं हैं-मैत्री, प्रमोद, कारुण्य माध्यस्थ। 
मैत्री-दूसरों के हित का चिंतन करना, सबके साथ मैत्री का भाव रखना। 
प्रमोद-किसी भी रूप में ईर्ष्या न रखना, दूसरों की उन्नति को देखकर जलन न करना/प्रसन्न होना। 
कारुण्य-संक्लिष्ट अथवा दुखित जीवों के प्रति करुणा का भाव रखना, उनके मंगल की कामना करना। 
माध्यस्थ-प्रतिकूल आचरण करने वालों के प्रति भी माध्यस्थता-तटस्थता का भाव रखना। उनके प्रति भी क्रोध या द्वेष न करना। 
इन चार भावनाओं का व्यवहार में प्रयोग करने वाला व्यक्ति धार्मिक कहलाने का अधिकारी है, ऐसा मेरा मंतव्य है। 
-----आत्मा की अध्यात्मभावित कर जीवन में उच्चता और गंभीरता प्राप्त करने का लक्ष्य बने। कहा भी गया है- 
उच्चत्वमपरा नाद्रौ नेदं सिन्धौ गभीरता। 
अलंघनीयताहेतो र्द्वयमेतद् मनस्विनि।। 
पर्वत में ऊंचाई होती है, पर गहराई नहीं होती। समुद्र में गहराई होती है, पर ऊंचाई नहीं होती, पर मनस्वी व्यक्ति में ऊंचाई और गहराई दोनों होती हैं। 
इस महापर्व से ज्ञान की गहराई और आचरण की ऊंचाई को अर्जित करने की प्रेरणा प्राप्त हो सकती है।

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