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बुधवार, अगस्त 29, 2012

दशहरा(विजयादशमी) पर्व इस वर्ष 2012 में दशहरा पर्व 24 अक्तूबर , (बुधवार) को मनाया जायेगा....


बुराई पर अच्छाई की जीत का दशहरा(विजयादशमी) पर्व इस वर्ष 2012 में दशहरा पर्व 24 अक्तूबर , (बुधवार) को मनाया जायेगा....


भारतीय संस्कृति में उत्सवों और त्यौहारों का आदि काल से ही महत्व रहा है। हर संस्कार को एक उत्सव का रूप देकर उसकी सामाजिक स्वीकार्यता को स्थापित करना भारतीय संस्कृति की सबसे बड़ी विशेषता रही है। भारत में उत्सव व त्यौहारों का सम्बन्ध किसी जाति, धर्म, भाषा या क्षेत्र से न होकर समभाव से है और हर त्यौहार के पीछे एक ही भावना छिपी होती है- मानवीय गरिमा को समृद्ध करना। 
दशहरा (विजयदशमी या आयुध-पूजा) हिन्दुओं का एक प्रमुख त्योहार है। अश्विन (क्वार) मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को इसका आयोजन होता है। भगवान राम ने इसी दिन रावण का वध किया था। इसे असत्य पर सत्य की विजय के रूप में मनाया जाता है। इसीलिये इस दशमी को विजयादशमी के नाम से जाना जाता है। दशहरा वर्ष की तीन अत्यन्त शुभ तिथियों में से एक है, अन्य दो हैं चैत्र शुक्ल की एवं कार्तिक शुक्ल की प्रतिपदा। इस वर्ष 2012 में दशहरा पर्व 24 अक्तुबर, (बुधवार) के दिन धूमधाम एवं हर्षोल्लास के साथ मनाया जायेगा.  यह त्यौहार बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में मनाया जाता है।

भारतवर्ष वीरता और शौर्य की उपासना करता आया है | और शायद इसी को ध्यान में रखकर दशहरे का उत्सव रखा गया ताकि व्यक्ति और समाज में वीरता का प्राकट्य हो सके। नवरात्र के नौ दिनों में शक्ति की उपासना से जो ओज और बल मिलता है उसको दशमी यानी दशहरे या विजयादशमी के दिन मर्यादापुर्शोत्तम भगवान् श्रीराम के विजय दिवस को मना कर लोग-बाग जाहिर करते हैं | ना केवल बाह्य अपितु आतंरिक शत्रुओं (काम-क्रोध -लोभ) पर विजय प्राप्त करने का दिन है ये विजयादशमी |भारतीय संस्कृति वीरता की पूजक है, शौर्य की उपासक है। व्यक्ति और समाज के रक्त में वीरता प्रकट हो इसलिए दशहरे का उत्सव रखा गया है। दशहरा का पर्व दस प्रकार के पापों- काम, क्रोध, लोभ, मोह मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी के परित्याग की सद्प्रेरणा प्रदान करता है..

भगवान् श्रीराम भी दस दिशाओं में फैले रावण के अविवेक, अनाचार रुपी आतंक को मिटाने हेतु उस समय अवतरित हुए जब कोई सोच भी नहीं सकता था कि अहंकार, प्रपंच और स्वार्थ के प्रतिनिधि रावण का विरोध-प्रतिरोध किया जा सकता है। अनीति जब चरम सीमा पर पहुंची तो भगवान राम ने मनुष्य रूप में जन्म लिया। राम सीता का विवाह गृहस्थोपभोग के लिए नहीं, किसी प्रयोजन के लिए एक अपूर्णता को पूर्णता में परिवर्तित कर समय की महती आवश्यकता को पूरी करने के लिए हुआ। वनवास हुआ, सीता हरण हुआ व असुर रावण के पास पहुँच गयी। सीता हरण न होता तो अनाचार रुपी रावण का अंत न हो पाता। प्रजापति ब्रह्मा ने देवताओं को एकत्र कर भिन्न-भिन्न रूपों में धरती पर जागृत आत्माओं के रूप में अवतार प्रयोजन की पूर्ति हेतु रीछ, वानर, गिद्ध आदि रूपों में भगवान राम की सहायता के लिए भेजा जिन्होंने अपने अदम्य शौर्य, दुस्साहस का परिचय देते हुए धर्म युद्ध लड़ा और मायावी रावण के आतंकवाद को समाप्त कर ही दम लिया, जिसकी प्रभु ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। जब भी आतंक को चीरते हुए अप्रत्याशित रूप से सत्साहस उभरे, समझना चाहिए की दैवी चेतना काम कर रही है।

दशहरा पर्व भारतीय संस्कृति में सबसे ज्यादा बेसब्री के साथ इंतजार किये जाने वाला त्यौहार है। दशहरा शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के शब्द संयोजन ष्दशष् व ष्हराष् से हुयी है, जिसका अर्थ भगवान राम द्वारा रावण के दस सिरों को काटने व तत्पश्चात रावण की मृत्यु रूप मंे राक्षस राज के आंतक की समाप्ति से है। यही कारण है कि इस दिन को विजयदशमी अर्थात अन्याय पर न्याय की विजय के रूप में भी मनाया जाता है। दशहरे से पूर्व हर वर्ष शारदीय नवरात्र के समय मातृरूपिणी देवी नवधान्य सहित पृथ्वी पर अवतरित होती हैं- क्रमशः शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्रि, महागौरी व सिद्धिदात्री रूप में मांँ दुर्गा की लगातार नौ दिनांे तक पूजा होती है। ऐसी मान्यता है कि नवरात्र के अंतिम दिन भगवान राम ने चंडी पूजा के रूप में माँ दुर्गा की उपासना की थी और मांँ ने उन्हें युद्ध में विजय का आशीर्वाद दिया था। इसके अगले ही दिन दशमी को भगवान राम ने रावण का अंत कर उस पर विजय पायी, तभी से शारदीय नवरात्र के बाद दशमी को विजयदशमी के रूप में मनाया जाता है और आज भी प्रतीकात्मक रूप में रावण-पुतला का दहन कर अन्याय पर न्याय के विजय की उद्घोषणा की जाती हेै।


विजयादशमी पूरे वर्ष में एक मात्र ऐसा मुहूर्त होता है, जिसमें व्यक्ति अपनी समस्याओं पर विजय प्राप्त कर सकता है। इस दिन पूजा अर्चना कर लोगों को उनके कष्टों से मुक्ति मिलती है। अधर्म पर धर्म की विजय के रूप में मनाए जाने वाले इस पर्व के दिन कार्यों में सफलता मिलती है। आश्विन मास के शुक्ल पक्ष में दशमीं तिथि को श्रवण नक्षत्र आता है। इसी दिन विजया तिथि होती है। शासन, सत्ता वाले लोगों के लिए यह समय काफी शुभ माना जाता है। ऐसे लोगों को देवी की आराधना करनी चाहिए। इसके उपरांत अपने वाहन एवं शस्त्रों की पूजा करनी चाहिए। इस दिन अखण्ड रामायण का पाठ करने से भी मनोकामनाएं पूरी होती हैं। इस तिथि पर भगवान राम ने रावण पर विजय पाई थी। इसलिए यह तिथि महत्वपूर्ण है।इसी दिन लोग नया कार्य प्रारम्भ करते हैं, शस्त्र-पूजा की जाती है। प्राचीन काल में राजा लोग इस दिन विजय की प्रार्थना कर रण-यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। इस दिन जगह-जगह मेले लगते हैं। रामलीला का आयोजन होता है। रावण का विशाल पुतला बनाकर उसे जलाया जाता है। दशहरा अथवा विजयदशमी भगवान राम की विजय के रूप में मनाया जाए अथवा दुर्गा पूजा के रूप में, दोनों ही रूपों में यह शक्ति-पूजा का पर्व है, शस्त्र पूजन की तिथि है। हर्ष और उल्लास तथा विजय का पर्व है। भारत त्यौहारों का देश है, यहां अनेक धर्म, संस्कृ्तियां एक साथ रहती है. एक धर्म के पर्वों को दूसरे धर्म, वर्ग के लोग पूरे हर्षोल्लास से मनाते है. कई बार हिन्दूओं का ही कोई पर्व दुसरे राज्य में किसी ओर नाम से मनाया जा रहा होता है. शास्त्रों के अनुसार देखे तो दशहरे का वास्तविक नाम विजयदशमी है. शास्त्रों में कहीं- कहीं इसे अपराजिता नाम से भी संम्बोधित किया गया है.


विजयादशमी के साथ अनेक ऐतिहासिक प्रसंग प्रचलित हैं। सबसे पुराना प्रसंग मां दुर्गा के साथ जुड़ा है। ऐसी मान्यता है कि जब सारे देवता शुंभ-निशुंभ, रक्तबीज और महिषासुर जैसे राक्षसों से पराजित हो गये, तो उन्होंने मिलकर उनका सामना करने का विचार किया; पर आज की तरह वहां भी पुरुषोचित अहम् तथा नेतृत्व का विवाद खड़ा हो गया। ऐसे में सब देवताओं ने एक नारी के नेतृत्व में एकजुट होकर लड़ना स्वीकार किया। इतना ही नहीं, तो उन्होंने अपने-अपने शस्त्र अर्थात अपनी सेनाएं भी उनको समर्पित कर दीं। मां दुर्गा ने सेनाओं का पुनर्गठन किया और फिर उन राक्षसों का वध कर समाज को उनके आतंक से मुक्ति दिलायी थी। मां दुर्गा के दस हाथ और उनमें धारण किये गये अलग-अलग शस्त्रों का यही अर्थ है। स्पष्ट ही यह कथा हमें संदेश देती है कि यदि आसुरी शक्तियों से संघर्ष करना है, तो अपना अहम् समाप्त कर किसी एक के नेतृत्व में अनुशासनपूर्वक सामूहिक रूप से संघर्ष करना होगा, तभी सफलता मिल सकती है, अन्यथा नहीं।

दूसरी घटना भगवान राम से संबंधित है। लंका के अनाचारी शासक रावण ने जब उनकी पत्नी का अपहरण कर लिया, तो उन्होंने समाज के निर्धन, पिछड़े और वंचित वर्ग को संगठित कर रावण पर हल्ला बोल दिया। वन, पर्वत और गिरी-कंदराओं में रहने वाले वनवासी रावण और उसके साथियों के अत्याचारों से आतंकित तो थे; पर उनमें इतनी हिम्मत नहीं थी कि वे उसका मुकाबला कर पाते। श्रीराम ने उनमें ऐसा साहस जगाया। उन्हें अस्त्र-शस्त्रों का निर्माण और उनका संचालन सिखाया। और फिर उनके बलबूते पर रावण जैसे शक्तिशाली राजा को उसके घर में जाकर पराजित किया। आज की रामलीलाओं और चित्रों में भले ही वानर, रीछ, गृद्ध आदि का अतिरंजित वर्णन हो; पर वे सब हमारे जैसे सामान्य लोग ही थे।

यदि विजयादशमी से जुड़े ऐतिहासिक प्रसंगों को सही अर्थ में समझकर हम व्यवहार करें, तो यह पर्व न केवल हमें व्यक्तिगत रूप से अपितु सामाजिक रूप से भी जागरूक करने में सक्षम है। रावण, कुम्भकरण और मेघनाद के पुतलों का दहन करते समय अपनी निजी और सामाजिक कुरीतियों, अंधविश्वासों और कालबाह्य हो चुकी रूढ़ियों को भी जलाना होगा। आज विदेशी और विधर्मी शक्तियां हिन्दुस्थान को हड़पने के लिए जैसे षड्यन्त्र कर रही हैं, उनका सामना करने का सही संदेश विजयादशमी का पर्व देता है। आवश्यकता केवल इसे ठीक से समझने की ही है।

विजयादशमी शक्ति की उपासना का पर्व है। शक्ति का अर्थ है - बल, सामथ्र्य और पराक्रम। हर व्यक्ति अपनी शक्ति का उपयोग अलग प्रकार से करता है। दुर्जन व्यक्ति ज्ञान का प्रयोग व्यर्थ विवाद या बहस में, धन का उपयोग अहं के दिखावे में, बल का प्रयोग दूसरों को पीड़ा पहुंचाने में करते हैं। इसके विपरीत सदाचारी व्यक्ति अपनी शक्ति का प्रयोग ज्ञान प्राप्ति, दूसरों की सेवा में एवं अपने धन का उपयोग अच्छे कार्यों में करते हैं। इस प्रकार शक्ति इंसान में कर्म, उत्साह और ऊर्जा का संचार करती है इसीलिए इस दिन मर्यादा पुरुषोत्तम भगवान श्रीराम की रावण पर विजय सत्य की असत्य पर, धर्म की अधर्म पर एवं न्याय की अन्याय पर विजय थी। 
भगवान राम ने जगत को संदेश दिया कि दुष्ट और अत्याचारी कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, किंतु शक्ति का दुरुपयोग अंत में उसके ही विनाश का कारण होता है। यह पर्व हमारें मन में विजय का भाव जगाता है एवं  अपनी ज्ञान एवं विवेक रूपी शक्तियों का जागरण कर अपने अज्ञान रूपी अंधकार और स्वभाविक विकारों - काम, क्रोध, मद, लोभ, मोह और मात्सर्य पर विजय प्राप्त करने की प्रेरणा देता है। 

लोकाभिरामं रणरंगधीरं 
राजीव नेत्रं रघुवंशनाथम्।
 कारुण्यरूपं करुणाकरं तं  
श्रीरामचद्रं शरणं प्रपद्ये।
रावण एवं अन्य राक्षसों से त्रस्त होकर देव‍तागण भगवान विष्णु से रावण-वध के लिए प्रार्थना करते हैं। तब भगवान विष्णु लोकहित के लिए, लोक कल्याण के लिए, असत्य पर सत्य की विजय के लिए, पृथ्वी के उद्धार के लिए एवं अत्याचार के नाश के लिए राजा दशरथ के यहां पुत्र रत्न के रूप में उत्पन्न होते हैं।

यही राम असत्य पर सत्य की विजय के रूप में रावण का वध करते हैं।

ऐसे भगवान श्रीराम को हम प्रणाम करते हैं। जिन्होंने देवताओं की प्रार्थना सुनकर रावण का युद्ध में संहार किया। भगवान राम ने दशहरे के साथ यह संदेश जोड़ा कि शत्रुता व्यक्ति से नहीं उसके बुरे कर्म से होनी चाहिए। इस दिन श्रीराम प्रभु के चरित्र से नम्रता, प्रेम एवं उदारता का ही संदेश हम अपने ह्रदय में बसा सकते हैं। स्वयं श्रीराम ने रावण के युद्ध के बाद उस परिवार से शत्रुता त्याग कर अपनी उदारता, विनम्रता एवं प्रेम का संदेश दिया।

जाति-‍पाति धनु धर्म बड़ाई
प्रिय परिवार सदन सुखदाई।।
सब ‍तजि तुम्हहि रहई उर लाई।
तेहि के ह्रदय रहहु रघुराई।।

अर्थात् जाति-पाति, धर्म, धन, व प्रिय परिवार सबको छोड़ कर जो केवल प्रभु को अपने ह्रदय में धारण किए रहता है उसका कल्याण होता है। हे प्रभु राम! आप सबके ह्रदय में निवास करें।    प्रभु भक्ति में ऊंच-नीच, अमीर-गरीब का भेदभाव नहीं किया जाता है। स्वयं राम शबरी के यहां बेर खाने जाते हैं, तो शबरी से कहते हैं : ---  

कह रघुपति सुनि भामिनी बाता  
मानऊं एक भगति कर नाता।  
जाति-‍पाति-कुल धर्म बड़ाई।
धन बल परिजन गुन चतुराई।।
 भगति हीन नर सोहई कैसा।
 बिनु जल वारिद देखिय जैसा।।

 प्रभु राम कहते है- देवी! मेरी बात सुनो। मैं तो केवल एक भक्ति का नाता मानता हूं। जाति-पाति, कुल, धर्म, बल, कुटुंब, गुण और चतुराई इन सबके होते हुए भी भक्ति से रहित मनुष्य वैसा ही लगता है जैसा जल से रहित बादल।    इसलिए प्रभु की भक्ति किसी भी प्रकार के बंधन वाली नहीं है। प्रभु को पूर्ण मन से सुमिरन करें। वह ह्रदय में निवास करेंगे। दशहरे के दिन भगवान श्रीराम से निम्नलिखित उक्तियों से प्रार्थना करनी चाहिए।    करउ सो मम उर धाम।  अर्थात्- प्रभु मेरे ह्रदय में निवास करें।    मम ह्रदयं करहु निकेत।  अर्थात्- प्रभु मेरे ह्रदय में अपना घर बना लें।    ह्रदि बसि राम काम मद गंजय।  अर्थात्- हे प्रभु राम! आम हमारे ह्रदय में बस कर काम-क्रोध और अहंकार को नष्ट कर दीजिए।    ऐसी प्रार्थना कर प्रभु के भक्ति में लीन होकर ह्रदय रूपी राम को जगा कर अंदर के अहंकार, पाप, क्रोध, मद वाले रावण का दहन करें एवं श्रीराम को प्रणाम करें। भक्तप्रिय प्रभु नारायण-दशरथ पुत्र, सभी मनोरथ पूर्ण करेंगे।    राम नाम उर मैं गहिओ जा कै राम नहीं कोई।।  जिंह सिमरन संकट मिटै दरसु तुम्हारे होई।।    जिनके सुंदर नाम को ह्रदय में (ग्रहण) बसा लेने मात्र से सारे काम पूर्ण हो जाते है। जिनके समान कोई दूजा नहीं है। जिनके स्मरण मात्र से सारे संकट मिट जाते हैं। ऐसे प्रभु श्रीराम को कोटि-कोटि प्रणाम है।    यह प्रार्थना करने मात्र से दसों इंद्रियों पर विजय प्राप्त की जा सकती है और दशहरा सार्थक होगा। 

दशहरे के दिन भारत में कुछ क्षेत्रों में शमी वृक्ष की पूजा का भी प्रचलन है। ऐसी मान्यता है कि अर्जुन ने अज्ञातवास के दौरान राजा विराट की गायों को कौरवों से छुड़ाने हेतु शमी वृक्ष की कोटर में छिपाकर रखे अपने गाण्डीव-धनुष को फिर से धारण किया। इस अवसर पर पाण्डवों ने गाण्डीव-धनुष की रक्षा हेतु शमी वृक्ष की पूजा कर कृतज्ञता व्यक्त की। तभी से दशहरे के दिन शस्त्र पूजा के साथ ही शमी वृक्ष की भी पूजा होने लगी। पौराणिक कथाओं में भी शमी वृक्ष के महत्व का वर्णन किया गया है। इसके अनुसार राजा रघु के पास जब एक साधु दान लेने आया तो राजा को अपना खजाना खाली मिला। इससे क्र्रोधित हो राजा रघु ने इन्द्र पर चढ़ाई की तैयारी कर दी। इन्द्र ने रघु के डर से अपने बचाव हेतु शमी वृक्ष के पत्तों को सोने का कर दिया। तभी से यह परम्परा आरम्भ हुयी कि क्षत्रिय इस दिन शमी वृक्ष पर तीर चलाते हैं एवं उससे गिरे पत्तों को अपनी पगड़ी में धारण करते हैं। आज भी विजयदशमी पर महाराष्ट्र और राजस्थान में शस्त्र पूजा बड़े उल्लास से की जाती है। इसे महाराष्ट्र मंे ‘सीलांगण’ अर्थात सीमा का उल्लघंन और राजस्थान में ष्अहेरियाष् अर्थात शिकार करना कहा जाता है। राजा विक्रमादित्य ने दशहरे के दिन ही देवी हरसिद्धि की आराधना की थी तो छत्रपति शिवाजी को इसी दिन मराठों की कुलदेवी तुलजा भवानी ने औरगंजेब के शासन को खत्म करने हेतु रत्नजड़ित मूठ वाली तलवार ष्भवानीष् दी थी, ऐसी मान्यता रही है। तभी से मराठा किसी भी आक्रमण की शुरूआत दशहरे से ही करते थे और इसी दिन एक विशेष दरबार लगाकर बहादुर मराठा योद्धाओं को जागीर एवं पदवी प्रदान की जाती थी। ष्सीलागंणष् प्रथा का पालन करते हुए मराठे सर्वप्रथम नगर के पास स्थित छावनी में शमी वृक्ष की पूजा करते व तत्पश्चात पूर्व निर्धारित खेत में जाकर पेशवा मक्का तोड़ते एवं तत्पश्चात सभी उपस्थित लोग मिलकर उस खेत को लूट लेते थे। राजस्थान के राजपूत भी ष्अहेरियाष् की परम्परा में सर्वप्रथम शमी वृक्ष व शस्त्रों की पूजा करते व तत्पश्चात देवी दुर्गा की मूर्ति को पालकी में रख दूसरे राज्य की सीमा में प्रवेश कर प्रतीकात्मक युद्ध करते। इतिहास इस परंपरा में ष्अहेरियाष् के चलते दो युद्धों का गवाह भी बना- प्रथमतः, 1434 में बूंदी व चितौड़गढ़ के बीच इस परम्परा ने वास्तविक युद्ध का रूप धारण कर लिया व इसमंे राणा कुम्भा की मौत हो गई। द्वितीयतः, महाराणा प्रताप के पुत्र अमर सिंह ने राजगद्दी पर आसीन होने के बाद पहली विजयदशमी पर उत्ताला दुर्ग में ठहरे मुगल फौजियों का असली अहेरिया (वास्तविक शिकार ) करने का संकल्प लिया। इस युद्ध में कई राजपूत सरदार हताहत हुए। आज भी सेना के जवानों द्वारा शस्त्र-पूजा की परम्परा कायम है।

त्यौहार सामाजिक सदाशयता के परिचायक हैं न कि हैसियत दर्शाने के। त्यौहार हमें जीवन के राग-द्वेष से ऊपर उठाकर एक आदर्श समाज की स्थापना में मदद करते हैं। समाज के हर वर्ग के लोगों को एक साथ मेल-जोल और भाईचारे के साथ बिठाने हेतु ही त्यौहारों का आरम्भ हुआ। यह एक अलग तथ्य है कि हर त्यौहार के पीछे कुछ न कुछ धार्मिक मान्यताएं, मिथक, परम्पराएं और ऐतिहासिक घटनाएं होती हैं पर अंततः इनका उद्देश्य मानव-कल्याण ही होता है। आज जरुरत है कि इन त्यौहारों की आडम्बरता की बजाय इनके पीछे छुपे हुए संस्कारों और जीवन मूल्यों को अहमियत दी जाए तभी व्यक्ति, परिवार, समाज और राष्ट्र सभी का कल्याण सम्भव होगा।

हर युग में बदलती परिस्थितियों के अनुरूप ही भगवान अवतरित हुए हैं, जहाँ एक ओर भगवान राम ने अपने अवतार में "प्राण जाय पर वचन न जाय" और मर्यादाओं का पालन कर बुराई के प्रतीक रावण का धीर-गंभीर समुद्र की भांति अविचल होकर दृढ़तापूर्वक नाश कर अच्छाई की धर्म पताका फहराते हुए रामराज्य की स्थापना की वहीँ दूसरी ओर कृष्ण अवतार में भगवान ने अपने समय की धूर्तता और छल-छदम से घिरी हुई परिस्थितियों का दमन 'विषस्य विषमौषधम' की नीति अपनाकर किया। उन्होंने कूटनीतिक दूरदर्शिता से तात्कालिक परिस्थितियों में जब सीधी उंगली से घी नहीं निकलती नज़र आयी तो कांटे से काँटा निकालने का उपाय अपनाकर अवतार प्रयोजन पूरा किया।

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