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रविवार, जुलाई 29, 2012

आइये जाने एवं समझे विभिन्न रोग और उपायों को-------


आइये जाने एवं समझे विभिन्न रोग और उपायों को-------

गुप्त रोग एवं ज्योतिष ----वागा राम परिहार
शुभ कर्मों के कारण ही मानव जीवन मिलता है। जीव योनियों में मानव जीवन ही सर्वश्रेष्ठ है। लेकिन क्या मानव जीवन को प्राप्त करना ही पर्याप्त है या जीवन में पूर्ण स्वास्थ्य प्राप्त कर अंतिम अवस्था को प्राप्त करना? निःसंदेह पहला सुख निरोगी काया ही है। यदि स्वास्थ्य अच्छा नहीं हो तो मानव जीवन पिंजरे मंे बंद पक्षी की तरह ही कहा जाएगा। गुप्त रोग अर्थात् ऐसे रोग जो दिखते नहीं हांे लेकिन वर्तमान में इसका तात्पर्य यौन रोगों से लिया जाता है। यदि समय रहते इनका चिकित्सकीय एवं ज्योतिषीय उपचार दोनों कर लिए जाएं तो इन्हें घातक होने से रोका जा सकता है। 
ज्योतिष के अनुसार किसी रोग विशेष की उत्पत्ति जातक के जन्म समय में किसी राशि एवं नक्षत्र विशेष में पाप ग्रहों की उपस्थिति, उन पर पाप प्रभाव, पाप ग्रहों के नक्षत्र में उपस्थिति एवं पाप ग्रह अधिष्ठित राशि के स्वामी द्वारा युति या दृष्टि रोग की संभावना को बताती है। 
इन रोग कारक ग्रहों की दशा एवं दशाकाल में प्रतिकूल गोचर रहने पर रोग की उत्पत्ति होती है। ग्रह, नक्षत्र, राशि एवं भाव मानव शरीर के भिन्न-भिन्न अंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं। 
वृश्चिक राशि व शुक्र को यौन अंगों का, पंचम भाव को गर्भाशय, आंत व शुक्राणु का षष्ठ भाव को गर्भ मूत्र की बीमारियांे, गुर्दे, आंत रोग, गठिया और मूत्रकृच्छ का सप्तम भाव को शुक्राशय, अंडाशय, गर्भाशय, वस्ति, मूत्र व मूत्राशय, प्रोस्टेट ग्रंथि, मूत्रद्वार, शुक्र एवं अष्टम भाव को गुदा, लिंग, योनि और मासिक चक्र का तथा नक्षत्रों में पूर्वाफाल्गुनी को गुप्तांग एवं कब्जियत, उत्तरा फाल्गुनी को गुदा लिंग व गर्भाशय और हस्त को प्रमेह कारक माना गया है। 
राशियों में कन्या राशि संक्रामक गुप्त रोगों वसामेह व शोथ विकार और तुला राशि दाम्पत्य कालीन रोगों की कारक कही गई है। ग्रहों में मंगल को गर्भपात, ऋतुस्राव व मूत्रकृच्छ, बृहस्पति को वसा की अधिकता से उत्पन्न रोग व पेट रोग और शुक्र को प्रमेह, वीर्य की कमी, प्रजनन तंत्र के रोग, मूत्र रोग गुप्तांग शोथ, शीघ्र पतन व धातु रोग का कारक माना गया है। 
इन कारकों पर अशुभ प्रभाव का आना या कारक ग्रहों का रोग स्थान या षष्ठेश से संबंधित होना या नीच नवांश अथवा नीच राशि में उपस्थित होना यौन रोगों का कारण बनता है। 
इसके अतिरिक्त निम्नलिखित ज्योतिषीय ग्रह योगों के कारण भी यौन रोग हो सकते हैं। 
शनि, मंगल व चंद्र यदि अष्टम, षष्ठ द्वितीय या द्वादश में हों तो काम संबंधी रोग होता है। इनका किसी भी प्रकार से संबंध स्थापित करना भी यौन रोगों को जन्म देता है। 
कर्क या वृश्चिक नवांश में यदि चंद्र किसी पाप ग्रह से युत हो तो गुप्त रोग होता है। 
यदि अष्टम भाव में कई पाप ग्रह हांे या बृहस्पति द्वादश स्थान में हो या षष्ठेश व बुध यदि मंगल के साथ हांे तो जननेंद्रिय रोग होता है। 
शनि, सूर्य व शुक्र यदि पंचम स्थान में हो, या दशम स्थान में स्थित मंगल से शनि का युति, दृष्टि संबंध हो या लगन में सूर्य व सप्तम में मंगल हो तो प्रमेह, मधुमेह या वसामेह होता है। चतुर्थ में चंद्र व शनि हों या विषम राशि लग्न में शुक्र हो या शुक्र सप्तम में लग्नेश से दृष्ट हो या शुक्र की राशि में चंद्र स्थित हो तो जातक अल्प वीर्य वाला होता है। 
शनि व शुक्र दशम या अष्टम में शुभ दृष्टि से रहित हों, षष्ठ या द्वादश भाव में जल राशिगत शनि पर शुभ ग्रहों का प्रभाव न हो या विषम राशिगत लग्न को समराशिगत मंगल देखे या शुक्र, चंद्र व लग्न पुरुष राशि नवांश में हों या शनि व शुक्र दशम स्थान में हों या शनि शुक्र से षष्ठ या अष्टम स्थान में हो तो जातक नपुंसक होता है। 
चंद्र सम राशि या बुध विषम राशि में मंगल से दृष्ट हो या षष्ठ या द्वादश भाव में नीचगत शनि हो या शनि व शुक्र पर किसी शुभ ग्रह की दृष्टि न हो तो जातक नपुंसक होता है। 
राहु, शुक्र व शनि में से कोई एक या सब उच्च राशि में हों, कर्क में सूर्य तथा मेष में चंद्र हो तो वीर्यस्राव या धातु रोग होता है। लग्न में चंद्र व पंचम स्थान में बृहस्पति व शनि हों तो धातु रोग होता है। 
कन्या लग्न में शुक्र मकर या कुंभ राशि में स्थित हो व लग्न को बुध और शनि देखते हांे तो धातु रोग होता है। 
दि अष्टम स्थान में मंगल व शुक्र हांे तो वायु प्रकोप व शुक्र मंगल की राशि में मंगल से युत हो तो भूमि संसर्ग से अंडवृद्धि होती है। 
लग्नेश छठे भाव में हो तो षष्ठेश जिस भाव में होगा उस भाव से संबंधित अंग रोगग्रस्त होता है। 
यदि यह संबंध शुक्र/पंचम/सप्तम/अष्टम से हो जाए तो निश्चित रूप से यौन रोग होगा। 
यदि जन्मांग में शुक्र किसी वक्री ग्रह की राशि में हो या लग्न में लग्नेश व सप्तम में शुक्र हो तो यौन सुख अपूर्ण रहता है।
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अर्श रोग ( बवासीर ) का ज्योतिष से संबंध और उपचार

मनुष्य की कुण्डली मे १२ भाव होते हैं जिसमें प्रथम, षष्ठ, और अष्टम भाव बहुत ही महत्वपूर्ण है । प्रथम भाव से स्वास्थ्य, शरीर का वर्ण आदि और छठे भाव से रोग का मालूम होना आदि और आठवें भाव मे मृत्यु आयु का पता लगाते हैं । छठे भाव को रोग का भाव भी कहा है । यहाँ पर कुण्डली के अनुसार केवल बवासीर का उदारहण दिया जा रहा है ।
कुण्डली मे कौन कौन से ग्रह अर्श रोग को उत्पन्न करते हैं यह बताया जा रहा है --
  1. "मन्देन्त्ये पाप दृष्टेर्शस:"-- बारहवें भाव मे शनि पाप ग्रह से दृष्ट हो तो अर्श रोग होवे ।
  2. मन्दे लग्ने कुस्ते॓Sर्श:स: -- शनि लग्न मे और मंगल सातवें भाव मे हो तो अर्श रोगी होवे ।
  3. द्यूनेरंध्रेशे क्रूरे शुक्रादृष्ते: अर्श: स: -- अष्टमेश क्रूर ग्रह होकर सातवें भाव मे गया हो और शुक्र ग्रह से दृष्ट न हो तो अर्श रोगी होवे ।
  4. मंदेस्तेलौ भौमेंक: अर्शर्स: -- शनि सप्तम भाव मे और वृशिचक राशी का  मंगल नवे भाव मे गया हो तो अर्श रोगी होवे ।
  5. मंदेन्त्ये ड्नूनगौ लग्नपोरौ अर्शर्स: -- शनि बारहवें भाव और लग्नेश व मंगल ये दोनों सप्तम भाव मे गये हो तो अर्श रोग होवे ।
  6. व्ययेर्कजे भौमांगेश्दृश्टे: अर्श: स: -- १२ वे भाव मे गया हुआ शनि, मंगल से और लग्नेश से दृष्ट हो तो अर्श रोग होगा ।
यदि शनि देव जन्म से कुण्डली  मे लग्न मे होवे और सातवें भाव मे मंगल  देव विराजमान है तो अर्श का रोग होगा । ज्योतिष मे यह स्पष्ट लिखा है । 
यदि शनिदेव सप्तम भाव मे है और नवें भाव मे वृशिचक राशि मे उसी मे मंगल देव विराजमान है तो अर्श का रोग होगा ।
ज्योतिष मे ऎसा स्पष्ट निर्देश है । ज्योतिष आयुर्वेद की पैथोलोजी की तरह है  जैसे आधुनिक डाक्टर विभिन्न लैब टैस्ट करवाते है और रोग का निदान करते है ,उसी तरह आयुर्वेद वैद्य ज्योतिष का साहरा लेकर रोग  का निदान करते हैं ।

ज्योतिष के अनुसार अर्श रोग की चिकित्सा --
अष्ट धातु की बनी हुई अंगुठी को बनवाकर जिस हाथ से शौच धोवें  उसी हाथ की अंगुली मे पहन लेवें और शौच को धोते समय वह अंगूठी गुदा के छूते रहना चाहिये । 
लाल अपामार्ग के बीज को तवे पर धीमी आंच से जला लेवें और उस जली हुई भस्म को ठण्डी करके  उसमें गाय का शुद्ध घृत मिला लेवें तथा काजल बना ले ।इस काजल को प्रात: काल शौच आदि से निवृत होकर आंखों मे आंजे और रात्रि काल मे भी आंजे ।  एसा करने से अर्श रोग से छुटकारा मिल जाएगा ।
साथ मे शनिदेव और मंगल देव का जाप भी करें ।
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हृदय रोग और ज्योतिष-

"ह्रदय "के बिना जीवन सम्भव नही है "ह्रदय "हमारे शरीर में रक्त का संचार वाहक ही नही अपितु "प्राण "का केन्द्र बिन्दु है २४ घंटे में १०००००लाख बार धड़कने वाला ये दिल क्या कभी थकता है ?हमारा ह्रदय १ मिनिट में ५ लीटर रक्त पम्प करता है मोटोनरी नामक मुख्य धमनिया १८ उपशाखाओ के साथ पुरे शरीर में रक्त की गति विधि को नियंत्रित करती है इन्ही किसी धमनियों में रक्त प्रवाह में रूकावट आने पर इन्जाइना एवं हार्टअटैक होता है एंजियोग्राफी अर्थात धमनी नलियो की तस्वीर ली जाती है ह्रदय को रक्त पहुचने वाली कोरोनरी नली का तस्वीर लिया जाता है एंजाइना से सीने का दर्द होता है ह्रदय रोग का भान होने पर तत्काल चिकित्सा परम आवश्यक है परिक्षण के उपरांत टीएम् टी करना चाहिए वर्तमान में चिकित्सा प्रणाली में काफी सुधार हुआ है "हार्ट ट्रांसप्लांट ,एंजियोप्लास्टिक ,इसमे नली बदलने के स्थान पर बैलून क्रिया द्वारा रक्त के जमाव को साफ़ कर नली में स्प्रिंग लगा दिया जाता है इसी को एंजियोप्लास्टिक कहते है
आयुर्वेद में ह्रदय रोग को तीन प्रकार में विभक्त किया गया है
१.शैलेश्मिक ह्रदय रोग २.वातिक ह्रदय रोग ३.पैत्तिका ह्रदय रोग इनमे त्रिदोशो को कारक माना गया है
ज्योतिष शास्त्र में इस का विश्लेषण शीघ्र और मंद गति से उत्पन्न होने वाले ह्रदय रोगों से किया जाता है जन्मांग चक्र में चतुर्थ स्थान ह्रदय का है इसका कारक ग्रह चंद्रमा है सूर्य से ह्रदय रोगों के कारणों का पता चलता है सिंह राशिः इसकी प्रतिनिधि राशि हैप्राचीन विधाओ में कहा गया है "स्वाजातिजाया गमने जायते हृदयावार्निया "अर्थात अपनी गोत्र एवं जाती की स्त्री से गमन करने से यह रोग होता है इसलिए व्यसन एवं स्त्रीगमन से बचाव आवश्यक है
सबसे बड़ी बात तो यह है की इंसान जितना अधिक तनावग्रस्त रहेगा रोग उतनी जल्दी उस पर संक्रमित होगे हमारे ह्रदय का सम्बन्ध "अनाहत "चक्र से है जिसका स्वामी ग्रह "शुक्र "है शुक्र चंचलता ,उग्रता ,समग्रता का प्रतिनिधि है साथ ही यह करुना दया ,प्रेम ,राग -अनुराग ,द्वेष का भी कारक है इसी ग्रह की शुभ -अशुभ स्थिति हमारे जन्मांग चक्र में होने से फलीभूत होती है लेकिन इस ग्रह के गुणावगुण को धारण करने से पहले हम अपने विवेक का प्रयोग करे तो इस तरह के रोग से बचा जा सकता है वर्तमान समय में भागती दौडती जिन्दगी में सहज रहना सम्भव नही है पर जान है तो जहान है अपने जीवन में जितनी शान्ति रहेगी उतना ही हम रोग मुक्त होगे मेरे कहने का मतलब ये नही की अपना काम छोड़ कर पूजापाठ में लग जाए बल्कि भौतिकता के साथ कुछ अध्यात्मिक पुट का होना जीवन के संतुलन के लिए आवश्यक है
ज्योतिष दृष्टिकोण से सूर्य ,चन्द्रमा ,मंगल ,चतुर्थ भावः .चतुर्थ स्थान का स्वामी ,षष्ठं भावः ,षष्ठेश भी इस रोग से सम्बन्ध रखते है सूर्य +मंगल की युति ,केतु और मंगल का एक ही भावः में होना ,आदि ह्रदय रोग के कारण है
उपाय :-सर्वप्रथम उचित चिकित्सा ,ज्योतिष परामर्श में ध्यान और शान्ति के साथ दैनिकचर्या का निर्धारण करना उचित आहार विहार ,अत्यधिक वजन से बचाव ,गरिष्ठ एवं नशीली वस्तुओ के सेवन में प्रतिबन्ध होना चाहिए हरी एवं अंकुरित सब्जियों का सेवन करे प्रतिदिन योग को प्राथमिकता देवे
सूर्य ह्रदय कारक है अतः इस ग्रह का उन्नत होना आवश्यक है अतः सूर्य के नियमित जाप से भी इस रोग से मुक्ति मिलती है कारण सूर्य बीज मंत्र के जाप से अनाहत चक्र में उर्जा शक्ति का संचार तीव्रता से होने लगता है ओरह्रदय में रक्त का जमाव नही होता "हं "बीज मंत्र के जाप से इडा ,पिंगला और सुषुम्ना नाडी में त्रियामी शक्ति संचारित होती है ,जो स्वयं प्राण कारक है
रत्न धारण करने से पहले ज्योतिष परामर्श अवश्य लेवे

हिन्दू धर्म ग्रंथों के अनुसार कालावधि पर आधारित कर्म के तीन भेद हैं- प्रारब्ध, संचित तथा क्रियमाण। पाप कर्मों का प्रारब्ध मानव को दु:ख रोग तथा कष्ट प्रदान करता है। किसी व्यक्ति के प्रारब्ध को ज्योतिषशास्त्र तथा योगसमाधि द्वारा जाना जा सकता है। उसमें योगसमाधि जो कि अष्टांग योग का उत्कृष्टतम अंग है, करोड़ों मनुष्यों में किसी बिरले साधक को ही सिद्ध हो पाती है। इस समाधि के सिद्ध होने से वह साधक संसार की घटनाओं के भूत, भविष्य, वर्तमान को प्रत्यक्ष देखता है। इसीलिए ऐसे महापुरुष त्रिकालदर्शी महात्मा कहलाते हैं। प्रारब्ध को जानने का जो दूसरा साधन है वह है फलित ज्योतिष। ज्योतिषशास्त्र में जन्म कुंडली, वर्ष कुंडली, प्रश्न कुंडली, गोचर तथा सामूहिक शास्त्र की विधाएँ व्यक्ति के प्रारब्ध का विचार करती हैं, उसके आधार पर उसके भविष्य के सुख-दु:ख का आंकलन किया जा सकता है। चिकित्सा ज्योतिष में इन्हीं विधाओं के सहारे रोग निर्णय करते हैं तथा उसके आधार पर उसके ज्योतिषीय कारण को दूर करने के उपाय भी किये जाते हैं। इसलिए चिकित्सा ज्योतिष को ज्योतिष द्वारा रोग निदान की विद्या भी कहा जाता है। अंग्रेजी में इसे मेडिकल ऐस्ट्रॉलॉजी कहते हैं। इसे नैदानिक ज्योतिषशास्त्र तथा ज्योतिषीय विकृतिविज्ञान भी कहा जा सकता है। यद्यपि ‘‘चिकित्सा ज्योतिष’’ नया शब्द है तथा इसका नाम भी नवीन है, परन्तु इस विषय पर आयुर्वेद तंत्र, सामुद्रिक ज्योतिषशास्त्र तथा पुराणों में पुष्कल सामग्री उपलब्ध है। प्राचीनकाल में ग्रन्थ सूत्ररूप में तथा तथा श्लोकबद्ध लिखे जाते थे। प्रस्तुत विषय से सम्बद्ध बहुत सा साहित्य मुगल काल में मतान्ध शासकों तथा सैनिकों ने नष्ट कर दिया है, जो कुछ बचा है वह भी प्रकृति प्रकोप तथा जीव-जन्तुओं के आघात से नष्ट हो गया।
प्राचीन समय में सभी पीयूषपाणि आयुर्वेदीय चिकित्सक ज्योतिषशास्त्र के ज्ञाता होते थे और वे किसी भी गम्भीर रोग की चिकित्सा से पूर्व ज्योतिष के आधार पर रोगी के आयुष्य तथा साध्यासाध्यता का विचार किया करते थे। जिसका आयुष्य ही नष्ट हो चुका है उसकी चिकित्सा से कोई लाभ नहीं होता। ‘‘श्रीमददेवीभागवत’’ महापुराण में एक कथा आई है जिसके अनुसार महर्षि कश्यप को जब यह ज्ञात हुआ कि राजा परीक्षित की मृत्यु सर्पदंश से होगी तब महर्षि ने सोचा कि मुझे अपनी सर्पविद्या से राजा परीक्षित के प्राणों की रक्षा करनी चाहिए। महर्षि कश्यप उस काल के ख्याति प्राप्त ‘‘विष वैज्ञानिक’’ थे। महर्षि ने राजमहल की ओर प्रस्थान किया, मार्ग में उन्हें तक्षक नाग मिला जो राजा परीक्षित को डसने जा रहा था। तक्षक ने ब्राह्मण का वेष बनाकर कश्यप से पूछा, ‘‘भगवान् आप कहाँ जा रहे हैं ?’’ कश्यप ने उत्तर दिया ‘‘मुझे ज्ञात हुआ है कि राजा परीक्षित की मृत्यु तक्षक के दंश से होगी, मैं अपने अगद प्रयोग द्वारा राजा के शरीर को विष रहित कर दूँगा जिससे धन और यश की प्राप्ति होगी।’’ तक्षक अपनी छदम् वेष त्यागकर वास्तविक रूप में प्रकट हो गया और कहा, ‘‘मैं इस हरे-भरे वृक्ष पर दंश का प्रयोग कर रहा हूँ। हे महर्षि। आप अपनी विद्या का प्रयोग दिखाएँ।’’ और तक्षक के विष प्रयोग से उस वृक्ष को कृष्ण वर्ण और शुष्क प्राय: कर दिया। महर्षि कश्यप ने अपने अगद प्रयोग से उस वृक्ष को पूर्ववत हरा-भरा कर दिया। यह देखकर तक्षक के मन में निराशा हुई। तब तक्षक ने महर्षि कश्यप से निवेदन किया कि, ‘‘आपका उपचार फलदायी तभी होगा जब राजा का आयुष्य शेष होगा। यदि वह गतायुष हो गया है तो आपको अपने कार्य में यश प्राप्त नहीं होगा।’’ कश्यप ने तत्काल ज्योतिष गणना करके पता लगाया कि राजा की आयु में कुछ घड़ी शेष हैं। ऐसा जानकर वे अपने स्थान को लौट गए। तक्षक के उससे विष को संस्कृत में तक्षकिन् कहते हैं। आजकल का अंग्रेजी में प्रयुक्त शब्द ‘Toxin’ उससे व्युत्पन्न हुआ। इस घटना की तरह पुराणों में अनेक घटनाओं का वर्णन है। जिनसे यह ज्ञात होता है कि प्राचीन वैद्य रोग निदान एवं साध्यासाध्यता के लिए पदे-पदे ज्योतिषशास्त्र की सहायता लेते थे।
योग-रत्नाकर में कहा है कि- औषधं मंगलं मंत्रो, हयन्याश्च विविधा: क्रिया। यस्यायुस्तस्य सिध्यन्ति न सिध्यन्ति गतायुषि।।
अर्थात औषध, अनुष्ठान, मंत्र यंत्र तंत्रादि उसी रोगी के लिये सिद्ध होते हैं जिसकी आयु शेष होती है। जिसकी आयु शेष नहीं है; उसके लिए इन क्रियाओं से कोई सफलता की आशा नहीं की जा सकती। यद्यपि रोगी तथा रोग को देख-परखकर रोग की साध्या-साध्यता तथा आसन्न मृत्यु आदि के ज्ञान हेतु चरस संहिता, सुश्रुत संहिता, भेल संहिता, अष्टांग संग्रह, अष्टांग हृदय, चक्रदत्त, शारंगधर, भाव प्रकाश, माधव निदान, योगरत्नाकर तथा कश्यपसंहिता आदि आयुर्वेदीय ग्रन्थों में अनेक सूत्र दिये गए हैं परन्तु रोगी या किसी भी व्यक्ति की आयु का निर्णय यथार्थ रूप में बिना ज्योतिष की सहायता के संभव नहीं है।
यह जान लें कि कुण्डली का छठा भाव रोग का होता है तथा छठे भाव का कारक ग्रह मंगल होता है। द्वितीय (मारकेश), तृतीय भाव, सप्तम भाव एवं अष्टम भाव(मृत्यु) का है। हृदय स्थान की राशि कर्क है और उसका स्वामी ग्रह चन्द्रमा जलीय है। हृदय का प्रतिनिधित्व सूर्य के पास है जिसका सीधा सम्बन्ध आत्मा से है। यह अग्नि तत्त्च है। जब अग्नि तत्त्व का संबंध जल से होता है तभी विकार उत्पन्न होता है। अग्नि जल का शोषक है। जल ही अग्नि का मारक है।
मंगल जब चन्द्र राशि में चतुर्थ भाव में नीच राशि में बैठता है तब वह अपने सत्त्व को खो देता है। सूर्य, चन्द्र, मंगल, राहु, शनि जब एक दूसरे से विरोधात्मक सम्बन्ध बनाते हैं तो विकार उत्पन्न होता है।
हृदय रोग में सूर्य(आत्मा व आत्मबल) अशुद्ध रक्त को फेफड़ों द्वारा शुद्ध करके शरीर को पहुंचाता है, चन्द्रमा रक्त, मन व मानवीय भावना, मंगल रक्त की शक्ति, बुध श्वसन संस्थान, मज्जा, रज एवं प्राण वायु, गुरु फेफड़े व शुद्ध रक्त, शुक्र मूत्र, चैतन्य, शनि अशुद्ध रक्त, आकुंचन का कारक है।
हृदय रोग के अनेक ज्योतिष योग हैं जोकि इस प्रकार हैं-
पंचमेश द्वादश भाव में हो या पंचमेश-द्वादशेश दोनों ६,८,१२वें बैठे हों, पंचमेश का नवांशेश पापग्रह युत या दृष्ट हो।
पंचमेश या पंचम भाव सिंह राशि पापयुत या दृष्ट हो।
पंचमेश व षष्ठेश की छठे भाव में युति हो तथा पंचम या सप्तम भाव में पापग्रह हों।
चतुर्थ भाव में गुरु-सूर्य-शनि की युति हो या मंगल, गुरु, शनि चतुर्थ भाव में हों या चतुर्थ या पंचम भाव में पापग्रह हों।
पंचमेश पापग्रह से युत या दृष्ट हो या षष्ठेश सूर्य पापग्रह से युत होकर चतुर्थ भाव में हो।
वृष, कर्क राशि का चन्द्र पापग्रह से युत या पापग्रहों के मध्य में हो।
षष्ठेश सूर्य के नवांश में हो।
चतुर्थेश द्वादश भाव में व्ययेश के साथ हो या नीच, शत्राुक्षेत्राी या अस्त हो या जन्म राशि में शनि, मंगल, राहु या केतु हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
शुक्र नीच राशि में हो तो उसकी महादशा में हृदय में शूल होता है। द्वितीयस्थ शुक्र हो तो भी उसकी दशा में हृदय शूल होता है।
पंचम भाव, पंचमेश, सूर्यग्रह एवं सिंह राशि पापग्रहों के प्रभाव में हों तो जातक को दो बार दिल का दौरा पड़ता है।
पंचम भाव में नीच का बुध राहु के साथ अष्टमेश होकर बैठा हो, चतुर्थ भाव में शत्राुक्षेत्राीय सूर्य शनि के साथ पीड़ित हो, षष्ठेश मंगल भाग्येश चन्द्र के साथ बैठकर चन्द्रमा को पीड़ित कर रहा हो, व्ययेश छठे भाव में बैठा हो तो जातक को हृदय रोग अवश्य होता है।
राहु चौथे भाव में हो और लग्नेश पापग्रह से दृष्ट हो तो हृदय रोग जातक को अवश्य होता है।
चतुर्थ भाव में राहु हो तथा लग्नेश निर्बल और पापग्रहों से युत या दृष्ट हो।
चतुर्थेश का नवांश स्वामी पापग्रहों से दृष्ट या युत हो तो हृदय रोग होता है।
लग्नेश शत्राुक्षेत्राी या नीच राशि में हो, मंगल चौथे भाव में हो तथा शनि पर पापग्रहों की दृष्टि हो या सूर्य-चन्द्र-मंगल शत्राुक्षेत्राी हों या चन्द्र व मंगल अस्त हों यापापयुत या चन्द्र व मंगल की सप्तम भाव में युति हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
शनि तथा गुरु पापगहों से पीड़ित या दृष्ट हों तो जातक को हृदय रोग एवं शरीर में कम्पन होता है।
शनि या गुरु षष्ठेश होकर चतुर्थ भाव में पापग्रह से युत या दृष्ट हो तो जातक को हृदय व कम्पन रोग होता है।
तृतीयेश राहु या केतु के साथ हो तो जातक को हृदय रोग के कारण मूर्च्छा रोग होता है।
चतुर्थ भाव में मंगल, शनि और गुरु पापग्रहों से दृष्ट हों तो जातक को हृदय रोग के कारण कष्ट होता है।
स्थिर राशियों में सूर्य पीड़ित हो तो भी हृदय रोग होता है।
अधिकांश सिंह लग्न वालों को हृदय रोग होता है।
षष्ठेश की की बुध के साथ लग्न या अष्टम भाव में युति हो तो जातक को हृदय रोग का कैंसर तक हो सकता है।
षष्ठ भाव में सिंह राशि में मंगल या बुध या गुरु हो तो हृदय रोग होता है।
छठे भाव में कुम्भ राशि में मंगल हो तो हृदय रोग होता है। छठे भाव में सिंह राशि हो तो भी हृदय रोग होता है।
चतुर्थेश किसी शत्राु राशि में स्थित हो और चौथे भाव में शनि व राहु या मंगल व शनि या राहु व मंगल या मंगल हो एवं शनि या पापग्रह से दृष्ट हो तो हृदय रोग होता है।
सूर्य पापप्रभाव से पीड़ित हो तभी हृदय रोग होता है।
हार्टअटैक के लिए राहु-केतु क पाप प्रभाव होना आवश्यक है। हार्ट अटैक आकसिम्क होता है।
हृदय रोग होगा या नहीं यह जानने के लिए कुछ ज्योतिष योगों की चर्चा करेंगे। इन योगों के आधार पर आप किसी की कुण्डली देखकर यह जान सकेंगे कि जातक को यह रोग होगा या नहीं। प्रमुख हृदय रोग संबंधी ज्योतिष योग इस प्रकार हैं-
१. सूर्य-शनि की युति त्रिाक भाव में हो या बारहवें भाव में हो तो यह रोग होता है।
२. अशुभ चन्द्र चौथे भाव में हो एवं एक से अधिक पापग्रहों की युति एक भाव में हो।
३. केतु-मंगल की युति चौथे भाव में हो।
४. अशुभ चन्द्रमा शत्रु राशि में या दो पापग्रहों के साथ चतुर्थ भाव में स्थित हो तो हृदय रोग होता है।
५. सिंह लग्न में सूर्य पापग्रह से पीड़ित हो।
६. मंगल-शनि-गुरु की युति चौथे भाव में हो।
७. सूर्य की राहु या केतु के साथ युति हो या उस पर इनकी दृष्टि पड़ती हो।
८. शनि व गुरु त्रिक भाव अर्थात्‌ ६, ८, १२ के स्वामी होकर चौथे भाव में स्थित हों।
९. राहु-मंगल की युति १, ४, ७ या दसवें भाव में हो।
१०. निर्बल गुरु षष्ठेश या मंगल से दृष्ट हो।
११. बुध पहले भाव में एवं सूर्य व शनि षष्ठेश या पापग्रहों से दृष्ट हों।
१२. यदि सूर्य, चन्द्र व मंगल शत्रुक्षेत्री हों तो हृदय रोग होता है।
१३. चौथे भाव में राहु या केतु स्थित हो तथा लग्नेश पापग्रहों से युत या दृष्ट हो तो हृदय पीड़ा होती है।
१४. शनि या गुरु छठे भाव के स्वामी होकर चौथे भाव में स्थित हों व पापग्रहों से युत या दृष्ट हो तो हृदय कम्पन का रोग होता है।
१५. लग्नेश चौथे हो या नीच राशि में हो या मंगल चौथे भाव में पापग्रह से दृष्ट हो या शनि चौथे भाव में पापग्रहों से दृष्ट हो तो हृदय रोग होता है।
१६. चतुर्थ भाव में मंगल हो और उस पर पापग्रहों की दृष्टि पड़ती हो तो रक्त के थक्कों के कारण हृदय की गति प्रभावित होती है जिस कारण हृदय रोग होता है।
१७. पंचमेश षष्ठेश, अष्टमेश या द्वादशेश से युत हो अथवा पंचमेश छठे, आठवें या बारहवें में स्थित हो तो हृदय रोग होता है।
१८. पंचमेश नीच का होकर शत्रुक्षेत्री हो या अस्त हो तो हृदय रोग होता है।
१९. पंचमेश छठे भाव में, आठवें भाव में या बारहवें भाव में हो और पापग्रहों से दृष्ट हो तो हृदय रोग होता है।
२०. सूर्य पाप प्रभाव में हो तथा कर्क व सिंह राशि, चौथा भाव, पंचम भाव एवं उसका स्वामी पाप प्रभाव में हो अथवा एकादश, नवम एवं दशम भाव व इनके स्वामी पाप प्रभाव में हों तो हृदय रोग होता है।
२१. मेष या वृष राशि का लग्न हो, दशम भाव में शनि स्थित हो या दशम व लग्न भाव पर शनि की दृष्टि हो तो जातक हृदय रोग से पीड़ित होता है।
२२. लग्न में शनि स्थित हो एवं दशम भाव का कारक सूर्य शनि से दृष्ट हो तो जातक हृदय रोग से पीड़ित होता है।
२३. नीच बुध के साथ निर्बल सूर्य चतुर्थ भाव में युति करे, धनेश शनि लग्न में हो और सातवें भाव में मंगल स्थित हो, अष्टमेश तीसरे भाव में हो तथा लग्नेश गुरु-शुक्र के साथ होकर राहु से पीड़ित हो एवं षष्ठेश राहु के साथ युत हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
२४. चतुर्थेश एकादश भाव में शत्राुक्षेत्राी हो, अष्टमेश तृतीय भाव में शत्रुक्षेत्री हो, नवमेश शत्रुक्षेत्री हो, षष्ठेश नवम में हो, चतुर्थ में मंगल एवं सप्तम में शनि हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
२५. लग्नेश निर्बल और पाप ग्रहों से दृष्ट हो तथा चतुर्थ भाव में राहु स्थित हो तो जातक को हृदय पीड़ा होती है।
२६. लग्नेश शत्रुक्षेत्री या नीच का हो, मंगल चौथे भाव में शनि से दृष्ट हो तो हृदय शूल होता है।
२७. सूर्य-मंगल-चन्द्र की युति छठे भाव में हो और पापग्रहों से पीड़ित हो तो हृदय शूल होता है।
२८. मंगल सातवें भाव में निर्बल एवं पापग्रहों से पीड़ित हो तो रक्तचाप का विकार होता है।
२९. सूर्य चौथे भाव में शयनावस्था में हो तो हृदय में तीव्र पीड़ा होती है।
३०. लग्नेश चौथे भाव में निर्बल हो, भाग्येश, पंचमेश निर्बल हो, षष्ठेश तृतीय भाव में हो, चतुर्थ भाव पर केतु का प्रभाव हो तो जातक हृदय रोग से पीड़ित होता है।
अगले अंक में हृदय रोग संबंधी अन्य योगों की चर्चा करेंगे और यह बताएंगे कि इस रोग से बचने के निदान क्या हैं अथवा उपाय क्या है?
सूर्य हृदय का प्रतिनिधित्व करता है, जिसका भाव पंचम है। जब पंचम भाव, पंचमेश तथा सिंह राशि पाप प्रभाव में हो तो हार्ट अटैक की सम्भावना बढ़ जाती है। सूर्य पर राहु या केतु में से किसी एक ग्रह का पाप प्रभाव होना भी आवश्यक है। जीवन में घटने वाली घटनाएं अचानक ही घटती हैं जोकि राहु या केतु के प्रभाव से ही घटती हैं। हार्ट अटैक भी अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के आता है, इसीलिए राहु या केतु का प्रभाव आवश्यक है।
यदि षष्ठेश केतु के साथ हो तथा गुरु, सूर्य, बुध, शुक्र अष्टम भाव में हों, चतुर्थ भाव में केतु हो तो हृदय रोग होता है।
चतुर्थेश लग्नेश, दशमेश व व्ययेश के साथ आठवें हो और अष्टमेश वक्री होकर तृतीयेश बनकर तृतीय भाव में हो व एकादश भाव का स्वामी लग्न में हो तो जातक को हृदय रोग होता है।
षष्ठेश की अष्टम भाव में स्थित गुरु, सूर्य, बुध, शुक्र पर दृष्टि हो तो जातक हृदय रोग से पीड़ित होता है।
शनि दसवीं दृष्टि से मंगल को पीड़ित करे, बारहवें भाव में राहु तथा छठे भाव में केतु हो, चतुर्थेश व लग्नेश अष्टम भाव में व्ययेश के साथ युत हो तो भी हृदय रोग होता है।
सर्वविदित है की चौथा भाव और दसवां भाव हृदय कारक अंगों के प्रतीक हैं। चतुर्थ भाव का कारक चन्द्र भी आरोग्यकारक है। दशम भाव के कारक ग्रह सूर्य, बुध, गुरु व शनि हैं। पाचंवा भाव छाती, पेट, लीवर, किडनी व आंतों का है, ये अंग दूषित हों तो भी हृदय हो हानि होती है। यह भाव बुद्धि अर्थात्‌ विचार का भी है। गलत विचारों से भी रोग वृद्धि होती है।
रोग के प्रकार के लिए पहले, छठे और बारहवें भाव को भी अच्छी तरह देखना चाहिए।
छठे भाव का कारक मंगल व शनि हैं। मंगल रक्त का कारक और शनि वायु का कारक है। ये भी रोग कारक हैं। आठवां भाव रोग और रोगी की आयु का सूचक है। आठवें का कारक शनि है। विचार करते समय भाव व उनके कारकों का विशेष ध्यान रखना चाहिए।
सूर्य, चन्द्र, मंगल, शनि, राहु व केतु ग्रह का विशेष ध्यान रखना चाहिए क्योंकि ये सभी रोग हो प्रभावित करते हैं या बढ़ाते हैं।
जन्म नक्षत्रा मघा, पूर्वाफाल्गुनी, उत्तराफाल्गुनी हों तो हृदय रोग अत्यन्त पीड़ादायक होता है।
मेष, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, कुम्भ, मीन राशियां जिन जातकों की हैं, उनका यदि मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, कुम्भ या मीन लग्न हो तो उनको हृदय रोग अधिक होता है।
भरणी, कृत्तिका, ज्येष्ठा, विशाखा, आर्द्रा, उत्तराफाल्गुनी नक्षत्रा हृदय रोग कारक हैं।
एकादशी, द्वादशी, चतुर्दशी, पूर्णिमा एवं अमावस्या दोनों पक्षों की हृदय रोग कारक हैं। जिन जातकों का जन्म शुक्ल में हो तो उन्हें कृष्ण पक्ष की उक्त तिथियां एवं जिनका जन्म कृष्ण में हो तो उन्हें शुक्ल पक्ष की उक्त तिथियों में यह रोग होता है।
आंग्ल तिथियों में १,१०,१९,२८,१३,२२,४,९,१८ व २७ में ये रोग होता है।
रोग का निदान कैसे करें?
हृदय रोग संबंधी समस्त योगों को समझ लें और उसका सार तत्त्व ग्रहण कर किसी भी कुण्डली में विचार कर विश्लेषण कर यह निर्णय कर लें कि हृदय रोग होगा या नहीं।
तदोपरान्त रोग कारक ग्रहों के कुप्रभाव को दूर करने के उपाय करें। कुण्डली के बली व शुभ ग्रहों को स्थापित करें।
रोग जटिल अवस्था में है तो अधोलिखित उपाय कराए-
१. पका हुआ पीला काशीफल लेकर उसके बीच निकाल करके किसी भी मन्दिर के प्रांगण में रखकर ईश्वर से स्वस्थ होने की कामना करते हुए रख दें। उपाय सूर्योदय के उपरान्त एवं सूर्यास्त से पूर्व करें। किसी के लिए वही कर सकता है जिसका रोगी से रक्त का संबंध हो। यह अनुसार अल्पतम तीन दिन करें और अधिक कष्ट है तो अधिक दिन भी कर सकते हैं। यहां आस्था एवं निरन्तरता महत्वपूर्ण है।
२. गुड़ की चासनी में आटा गूंथकर अधपकी रोटी तन्दूर में लगवा लें। रोटी की संख्या निर्धारित करने के लिए जिस दिन उपाय करना हो उस दिन रोगी के आसपास जितने लोग हों उन्हें गिनकर चार की संख्या अतिरिक्त जोड़ लें तदोपरान्त उतनी रोटी बनवा लें। इन रोटियों को बराबर मात्राा में दो भाग में करके एक भाग कुत्तों को और दूसरा भाग गायों को खिला दें यह सोचकर कि रोगी स्वस्थ हो जाए।
३. रोगी के सिरहाने एक सिक्का रखकर या श्रद्धानुसार रखकर उसे अगले दिन सूर्योदय के उपरान्त भंगी को दें। यह नित्य करें और ४३ दिन तक बिना नागा करें। मन में भाव रोगी के ठीक होने का रखें।
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रोग एवं उपाय -----
यदि पूर्व ज्ञान हो तो चिकित्सा शास्त्र में आशातीत सफलता प्राप्त होते देर नही लगता कई बार अध्यात्मवाद ,ज्योतिष तथा इष्ट साधन बहुत सहायक होते है इस तथ्य को हम माने या न माने चिकित्सा शास्त्र हो या ज्योतिस्शास्त्र यह हमारे पूर्वजो की ही देन है चंद्रमा पृथ्वी के सबसे करीब का उपग्रह है समीप होने के कारन यह मानव जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करता है प्रत्येक जीव सूर्य ,चंद्रमा एवं अन्य ग्रहों ,१२ राशियो से प्रभावित होते है पृथ्वी सौरमंडल का महत्वपूर्ण हिस्सा है पृथ्वी में पाए जाने वाले प्रत्येक तत्व का सम्बन्ध ग्रहों से है मानव एवं संपूर्ण ब्रम्हांड एक दुसरे पर अन्योनाश्रित है १२ रशिया कालपुरुष के विभिन्न अंगो का प्रतिनिधित्व करतीहैजो निम्न है :- १.मेष :-सर मस्तिष्क ,मुख ,सम्बंधित हड्डिया २.वृषभ :-गर्दन ,गाल .दाया नेत्र ३.मिथुन: -कन्धा ,हाथ ,श्वासनली .दोनों बाहू ४कर्क :-ह्रदय ,छाती ,स्तन ,फेफड़ा .पाचनतंत्र ,उदर ५.सिंह :-ह्रदय ,उदर ,नाडी ,स्पाईनल ,पीठ की हड्डिया ६.कन्या :-कमर ,आंत ,लिवर ,पित्ताशय ,गुर्दे और अंडकोष ७तुला :-वस्ति नितम्ब ,मूत्राशय ,गुर्दा ८.वृश्चिक :-गुप्तेंद्रिया ,अंडकोष ,गुप्तस्थान ९.धनु :-दोनों जंघे ,नितम्ब १०.मकर :-दोनों घुटने ,हड्डियों का जोड़ ११.कुम्भ :-दोनों पिंडालिया ,टाँगे १२.मीन :-दोनों पैर .तलुए राशियों के भांति ग्रह नक्षत्र में भी स्थायी गुन दोष है जिनके आधार पर रोगों के परिक्षण में सरलता आ जाता है 
जेसा की सभी जानते हें की मानव शरीर पंच तत्वों से मिलकर बना है- अग्नि, पृथ्वी, वायु, आकाश एवं जल। इन तत्वों का जब मानव शरीर में संतुलन बना रहता है, मनुष्य प्रसन्नचित्त एवं उत्तम व्यक्तित्व वाला निरोग व स्वस्थ रहता है। मानव शरीर में इन्हीं तत्वों के असंतुलित होने पर मनुष्य रोगग्रस्त, चिड़चिड़ा, दुखों से पीड़ित एवं कांतिहीन हो जाता है। मानव शरीर में तत्वों का असंतुलन साधारण भाषा में रोग कहलाता है। इसी रोग का उपाय करने के लिए व्यक्ति अलग-अलग तरीके अपनाता है। जैसे आयुर्वेद चिकित्सा, एलोपैथी चिकित्सा, होम्योपैथी चिकित्सा, स्पर्श चिकित्सा, रेकी, एक्यूपंक्चर एवं एक्यूप्रेशर आदि या ज्योतिषीय उपाय जैसे रत्न, यंत्र, दान, विसर्जन आदि तथा इन सभी पद्धतियों द्वारा जब असफलता ही हाथ लगती है तो आध्यात्मिक शक्ति की खोज में व्यक्ति साधुओं व ऋषि- मुनियों के पास उनका आशीर्वाद लेने हेतु जाता है। आयुर्वेद चिकित्सा की खोज भारत के ऋषि-मुनियों के द्वारा की गयी। उन्होंने अपने अनुभव और ज्ञान के आधार पर कुछ ऐसी जड़ी-बूटियों की खोज की जिससे शरीर में जिस तत्व की कमी हो उसे पूरा किया जा सके। जैसे ही तत्व की आपूर्ति हो जाती है, शरीर के अंग पुनः क्रियाशील हो जाते हैं और रोग दूर हो जाता है। ऐलोपेथी में भी रासायनिक क्रिया द्वारा तत्वों की कमी को पूरा करने की कोशिश की जाती है या रसायन-क्रिया द्वारा विषाणुओं को कमजोर कर दिया जाता है जिससे शरीर पुनः क्रियाशील हो जाता है। होम्योपेथी में माना जाता है कि जिस पदार्थ के कारण रोग है यदि उस पदार्थ को उससे अधिक शक्ति के रूप में शरीर में प्रेषित करें तो पहले वाला पदार्थ निष्क्रिय हो जाता है और मनुष्य स्वस्थ हो जाता है। इसी सूत्र के आधार पर होम्योपेथी की दवाएं तैयार की जाती है। मनुष्य रोगी क्यों होता है। मुख्यतया रोग का मस्तिष्क से सीधा संबंध पाया गया है। अचानक किसी बड़े संताप के कारण हृदयाघात की आशंका 30 गुना तक बढ़ जाती है। अक्सर देखा जाता है कि बुजुर्ग दंपति में यदि एक की मौत हो जाय तो दूसरे की भी मौत कुछ ही अंतराल में हो जाती है। कारण है कि मस्तिष्क व्यक्ति की सोच के अनुरूप शरीर में विभिन्न रसों का स्राव करता है व कुछ का उत्पादन बंद कर देता है जो कि रोग का मुख्य कारण बनते हैं। इस क्रिया को संतुलित और सुव्यवस्थित करने के लिए हम चिकित्सा-पद्धति का सहारा लेते हैं। एक्यूप्रेशर या एक्यूपंक्चर में हम किसी नर्व के ऊपर प्रेशर डालकर जाग्रत करने की कोशिश करते हैं जिससे वह मस्तिष्क को सही संदेश भेजे और मस्तिष्क सही रसायन क्रिया करने का आदेश दे। स्पर्श पद्धति में या रेकी में हम मनुष्य के मस्तिष्क को ब्रह्माण्डीय ऊर्जा से परिपूर्ण करने की कोशिश करते हैं जिससे वह स्वयं सही कार्य करना शुरू कर दे और शरीर की रसायन क्रियाएं सही हो जाएं। ज्योतिष में भी अनेक उपचार प्रचलित है जैसे कोई रोग हो जाता है तो हम उसे किसी ग्रह का लाॅकेट आदि धारण करने के लिए बतलाते हैं अन्यथा उसे किसी मंत्र जाप या अनुष्ठान के लिए कहते हैं। रोगों से छुटकारे के लिए महामृत्युंजय मंत्र जप के बारे में तो सभी जानते हैं। कभी किसी वस्तु-विशेष का दान या विसर्जन भी बताया जाता है। रत्न-धारण तो मुख्य उपाय है ही। ये उपाय कैसे काम करते हैं? रत्न धारण करने से व्यक्ति के शरीर में वांछित सकारात्मक ऊर्जा का प्रवेश सूर्य की किरणों के माध्यम से होता है। सूर्य से सभी प्रकार के रंगों से ऊर्जा प्राप्त होती है। उसमें से जिस ऊर्जा का अभाव होता है, वह रत्न के माध्यम से शरीर में प्रवेश कर जाती है, जिससे हमारे शरीर और मस्तिष्क का नियंत्रण व संतुलन बना रहता है और हम स्वस्थ महसूस करते हैं। इन रत्नों को अंगूठी, लाॅकेट, माला, ब्रेसलेट आदि किसी भी रूप में धारण किया जा सकता है। मंत्रों के द्वारा हम एक विशिष्ट प्रकार की ध्वनि पैदा करते हैं तथा मंत्र हमारे वातावरण में सकारात्मक तरंगों को उत्पन्न करते हैं जिससे वांछित ऊर्जा की प्राप्ति से हम रोगमुक्त हो जाते हैं। इसके अतिरिक्त हम उस ग्रह को भी अपने अनुकूल बना पाते हैं जो हमारे लिये प्रतिकूल होते हैं। कौन सा ग्रह किस व्यक्ति के लिए अनुकूल अथवा प्रतिकूल है यह हम उस जातक की जन्मकुंडली या हस्तरेखा द्वारा जान सकते हैं। दान स्नान, व्रत आदि से जातक को मानसिक शांति का अनुभव होता है, जिससे उसके शरीर में सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है तथा नकारात्मक ऊर्जा का निराकरण हो जाता है जिससे शरीर में अनुकूल रासायनिक क्रियाऐं होने से जातक अपने को रोगामुक्त और स्वस्थ महसूस करता है। रेकी से स्पर्श द्वारा या बिना स्पर्श किये रोगों का उपचार किया जाता है। व्यक्ति के अंदर सकारात्मक एवं नकारात्मक दोनों प्रकार की ऊर्जाऐं होती है। इस पद्धति द्वारा जातक के शरीर में सकारात्मक ऊर्जाओं का संचार रेकी मास्टर अपने ज्ञान और अनुभव के आधार पर करता है जिससे कि जातक अपने आपको स्वस्थ महसूस करता है। मनुष्य के शरीर में जो चक्र होते हैं, उनमें से कुछ या तो क्रियाहीन हो जाते हैं या अधिक सक्रिय हो जाते हैं। प्राणिक हीलिंग के द्वारा उन ऊर्जा चक्रों को व्यवस्थित व संतुलित करके जातक को स्वस्थ करने का प्रयास किया जाता है। कई बार जातक को संगीत, भजन, कीर्तन आदि के प्रभाव से भी ठीक किया जाता है। उदाहरण के लिये यदि किसी व्यक्ति को ब्लड प्रेशर की बीमारी हो तो उसको यदि किसी भजन-कीर्तन का आनंद मिल जाये तो वह अपने आपको तनाव मुक्त महसूस करेगा तथा उसके शरीर व मस्तिष्क में ऐसी रासायनिक क्रियाऐं स्वतः होने लगेंगी जिससे जातक का ब्लडप्रेशर स्वतः सामान्य हो जायेगा। मस्तिष्क जैसा सोचता है वैसा ही शरीर करता है और किये गये कार्यों के फल से मनुष्य स्वस्थ या रोगी होता है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति दान, पुण्य, धार्मिक कार्य या सकारात्मक कार्य करता है तो मनुष्य को मानसिक शांति एवं प्रसन्नता का अनुभव होता है जिसके कारण शरीर में सकारात्मक रासायनिक क्रियाऐं होती हैं। जिसके कारण मनुष्य स्वस्थ महसूस करता है तथा उसकी आभा एवं कांति उसके मुखमंडल पर देखी जा सकती है। यही कारण है कि हमारे ऋषि-मुनि इतने अधिक वर्षों तक स्वस्थ रहते थे और दीर्घायु होते थे क्योंकि वे हमेशा प्रकृति के नजदीक रहकर काम, क्रोध, लोभ, मोह से विमुक्त जीवनयापन करते थे तथा हमेशा अपने आपको आध्यात्मिक कार्यों में संलग्न रखते थे जिससे उनको नकारात्मक ऊर्जा स्पर्श भी नहीं कर पाती थी। इसके विपरीत आज के आधुनिक युग में मनुष्य, काम, क्रोध, लोभ, मोह के साथ साथ प्रतियोगिता और प्रतिस्पर्धा वाली इस दुनिया की भागदौड़ में उलझा रहता है, जिस कारण वह न तो अपने जीवन को नियमित रूप से पाता है और न ही जीवन की आचार-संहिता का पालन कर पाता है, जिसके कारण मनुष्य में सदैव नकारात्मक ऊर्जा का संचार होता रहता है तथा व्यक्ति जल्दी-जल्दी रोगग्रस्त हो जाता है या अल्प-आयु में ही उसकी जीवन-लीला समाप्त हो जाती है। सभी प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा से बचने एवं सकारात्मक ऊर्जा के संचार के लिए सामान्य मनुष्य को स्वस्थ जीवन जीने के लिए हमेशा गलत कार्यों से बचते हुए, आयुर्वेद के सिद्धांतों का यथासंभव पालन करना चाहिए। पथ्य-अपथ्य भोजन के प्रति सचेत रहते हुए अपने जीवन में कार्य-व्यस्तता और विश्राम का संतुलन बनाते हुए, व्यायाम आदि का तो ध्यान रखना ही चाहिए, साथ ही कुछ ऐसे कर्म भी करते रहना चाहिए जिससे कि मानसिक शांति बनी रहे। निष्कर्षतः सकारात्मक ऊर्जा स्वस्थ जीवन का आधार है। इसे कई माध्यमों से पाया जा सकता है। भगवत-साधना इसका सबसे बड़ा स्रोत है। इसकी कमी के कारण ही हमें ऊर्जा का आवाहन वैकल्पिक स्रोतों जैसे रेकी, ज्योतिषीय उपाय या चिकित्सा द्वारा करना पड़ता है। अनेक रोगों जैसे मधुमेह, ब्लड-प्रेशर, मानसिक रोग, जोड़ों में दर्द, हृदय रोग आदि से तो केवल सकारात्मक ऊर्जा के प्रवाह से ही मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। यदि आप किसी मंत्र का जप या भगवत-ध्यान सतत रूप से करते हैं तो ये रोग आपके पास आएंगे ही नहीं और होंगे भी तो शीघ्र ही अवश्य दूर हो जाएंगे।
वास्तु शास्त्र ज्योतिष की ही एक शाखा है। बिना ज्योतिष ज्ञान के वास्तु शास्त्र अधूरा है। एक अच्छे वास्तु शास्त्री को कदम-कदम पर ज्योतिष की जरूरत महसूस होती है। वास्तु शास्त्र में प्रत्येक दिशा को एक ग्रह से जोड़ा गया है। ऐसे में एक वास्तु विशेषज्ञ के लिए प्रत्येक ग्रह के गुण, धर्म व स्वभाव का ज्ञान जरूरी हो जाता है। वहीं, वास्तु सुख की प्राप्ति के लिए अनुष्ठान, भूमि पूजन, नींव खनन, कुआं खनन, शिलान्यास, द्वार स्थापन, गृह प्रवेश आदि के मुहूर्त व शुभाशुभ ज्ञान के लिए ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान जरूरी होता है। एक जैसे दो मकानों में रहने वाले दो परिवारों में अलग-अलग समस्याएं व परस्पर विरोधी फल मिलने के कारणों का विश्लेषण करने पर हम पाते हैं कि उनके गृह प्रवेश मुहूर्त व जन्मपत्रियों में भिन्नता है। जन्मपत्री द्वारा निर्धारित प्रारब्ध और संचित कर्मों के फल को हमें भुगतान ही होगा। अनुकूल वास्तु के द्वारा हम अपनी कठिनाइयों को कम अवश्य कर सकते हैं, समाप्त नहीं कर सकते। वास्तु और ज्योतिष एक-दूसरे के पूरक हो सकते हैं। जीवन के घटनाक्रम में आने वाले संकटों के निवारण के लिए यदि वास्तु के साथ-साथ ज्योतिषीय पहलू पर भी विचार कर लिया जाए, तो समस्या का निदान ढूंढ़ने में आसानी होगी। किसी व्यक्ति को किस प्रकार के वास्तु की प्राप्ति होगी? वह बना बनाया घर लेगा या भूमि लेकर स्वयं बनाएगा? पैतृक घर मिलेगा या मिले हुए को भी बेच देगा? ये कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनके उत्तर के लिए ज्योतिष की सहायता लेना चाहिए। ग्रहों के गुण, धर्म, स्वभाव व दोष सूर्य पुरुष जाति का, रक्तवर्ण तथा पित्त प्रकृति का ग्रह है। यह पूर्व दिशा का स्वामी है। यह आत्मा, आरोग्य, स्वभाव, राज्य, देवालय का सूचक एवं पितृ कारक है। पूर्व दिशा में दोष या जन्मपत्री में सूर्य के पीड़ित होने पर पिता से संबंध कटुता रहती है। सूर्य की इस स्थिति के फलस्वरूप सरकार से परेशानी, सरकारी नौकरी में परेशानी, सिरदर्द, नेत्र रोग, हृदय रोग, चर्म रोग, अस्थि रोग, पीलिया, ज्वर, क्षय रोग व मस्तिष्क की दुर्बलता आदि हो सकते हैं। चंद्रमा स्त्री जाति का, श्वेतवर्ण तथा जलीय प्रकृति का ग्रह है। यह वायव्य दिशा का स्वामी है। यह मन, चित्तवृत्ति, शारीरिक व मानसिक स्वास्थ्य, संपत्ति व माता का कारक है। वायव्य दिशा में दोष या जन्मपत्री में चंद्रमा के दूषित होने पर माता से संबंध में कटुता, मानसिक परेशानियां, अनिद्रा, दमा, श्वास रोग, कफ, सर्दी जकुाम, मत्रू रागे , स्त्री हाने की स्थिति में मासिक धर्म संबंधी रोग, पित्ताशय की पथरी, निमोनिया आदि हो सकते हैं। मंगल पुरुष जाति का, रक्तवर्ण तथा अग्नि तत्व पित्त प्रकृति का ग्रह है। यह दक्षिण दिशा का स्वामी है। यह धैर्य और पराक्रम का स्वामी, भाई का कारक तथा रक्त एवं शक्ति का नियामक कारक है। दक्षिण दिशा में दोष या जन्मपत्री में मंगल के पीड़ित होने पर भाइयों से संबंध में कटुता, क्रोध की अधिकता, दुर्घटनाएं, रक्त विकार, कुष्ठ रोग, फोड़ा-फुंसी, उच्च रक्त चाप, बवासीर, चेचक, प्लेग आदि हो सकते हैं। बुध नपुंसक जाति का, श्यामवर्ण, पृथ्वी तत्व तथा त्रिदोष प्रकृति का ग्रह है। यह उत्तर दिशा का स्वामी है। यह ज्योतिष, चिकित्सा, शिल्प, कानून तथा व्यवसाय का स्वामी है। उत्तर दिशा में दोष या जन्मपत्री में बुध के पीड़ित होने पर विद्या-बुद्धि संबंधी पेरशानियां, वाणी दोष, मामा से संबंध में कटुता, स्मृति लोप, मिर्गी, गले के रोग, नाक के रोग, उन्माद, मतिभ्रम, व्यवसाय में हानि, शंकालुता, विचार में अस्थिरता आदि हो सकते हैं। गुरु पुरुष जाति का, पीतवर्ण आकाश तत्व वाला ग्रह है। यह ईशान दिशा का स्वामी है। इसके द्वारा पारलौकिक एवं आध्यात्मिक सुखों का विशेष रूप से विचार किया जाता है। ईशान कोण में दोष और जन्मपत्री में गुरु के पीड़ित होने पर पूजा पाठ के प्रति विरक्ति, देवताओं, गुरुओं और ब्राह्मणों पर आस्था में कमी, आय में कमी, संचित धन में कमी, विवाह में देरी, संतानोत्पत्ति में देरी, मूर्च्छा, उदर विकार, कान का रोग, गठिया, कब्ज, अनिद्रा आदि कष्ट हो सकते हैं। शुक्र स्त्री जाति का श्याम और गौरवर्ण, तथा जलीय तत्व वाला ग्रह है। यह आग्नेय दिशा का स्वामी है। यह काव्य, संगीत, वस्त्राभूषण, वाहन, स्त्री, काम तत्व व सांसारिक सुखों का कारक है। आग्नेय दिशा में दोष या जन्मपत्री में शुक्र के पीड़ित होने पर पत्नी सुख में बाधा, प्रेम में असफलता, वाहन से कष्ट, शृंगार के प्रति अरुचि, नपुंसकता, हर्निया, मधुमेह, धातु एवं मूत्र संबंधी रोग, स्त्री होने की स्थिति में गर्भाशय संबधी रोग आदि हो सकते हैं। शनि नपुंसक जाति का, कृष्ण वर्ण तथा वायु तत्व का ग्रह है। यह पश्चिम दिशा का स्वामी है। इसकी स्थिति के आधार पर आयु, बल, दृढ़ता, विपत्ति, यश व नौकर-चाकरों का विचार किया जाता है। यह व्यक्ति को दुर्भाग्य तथा संकटों के चक्कर में डालकर अंत में शुद्ध और सात्विक बना देता है। पश्चिम दिशा में दोष या जन्मपत्री में शनि के पीड़ित होने पर नौकरों से क्लेश, नौकरी में परेशानी, वायु विकार, लकवा, रीढ़ की हड्डी में तकलीफ, भूत-प्रेत का भय, चेचक, कैंसर, कुष्ठ रोग, मिर्गी, नपुंसकता, पैरों में तकलीफ आदि हो सकते हैं। राहु कृष्ण वर्ण का एक क्रूर ग्रह है। यह नैत्य दिशा का स्वामी है। इसकी स्थिति के आधार पर गुप्त युक्ति बल, कष्ट और त्रुटियों का विचार किया जाता है। नैत्य कोण में दोष या जन्मपत्री में राहु के पीड़ित होने पर दादा से परेशानी, मन में अहंकार की भावना की उत्पत्ति, त्वचा रोग, कुष्ठ रोग, मस्तिष्क रोग, भूत-प्रेत का भय आदि हो सकते हैं। राहु की तरह केतु भी कृष्ण वर्ण का एक क्रूर ग्रह है। इसकी स्थिति के आधार पर नाना से परेशानी, किसी के द्वारा किए गए जादू-टोने से परेशानी, छूत की बीमारी, रक्त विकार, दर्द, चेचक, हैजे, चर्म रोग का विचार किया जाता है। यह मोक्ष का कारक है।

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